मोटे अनाजों की आधुनिक तरीके से खेती कर समृद्ध बन सकता उत्तराखंड

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देहरादून। मोटे आनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार रहे हैं। लेकिन पलायन व जंगली जानवरों द्वारा फसलों को पहुंचाए जा रहे नुकसान के कारण राज्य में मोटे अनाज की खेती सिमटती जा रही है। लोग लगातार खेती करना छोड़ रहे हैं, जिस कारण खेत बंजर पड़े हैं। पर्वतीय क्षेत्र में मोटे अनाज की खेती को नए तरीके से प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है ताकि लोग फिर से बड़े स्तर पर मोटे अनाज की खेती कर सकें और राज्य समृद्ध बन सके। मोटे अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30 प्रतिशत की कमी हुई है। बंजर होती खेती से जहां खेत जंगल में समा गए हैं, वहीं बंदर और लंगूर घरों तक पहुंच गए हैं। पर्वतीय लोक जीवन में अपनी कृषि की उपेक्षा से जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ है उसे हम अपनी पहचान के अनाजों के महत्व को समझ कर उसके उत्पादन को बढ़ाकर ही बचा सकते हैं।
उत्तराखंड में सदियों से मोटे अनाज की पारंपरिक खेती होती आई है। यहां इन्हें बारह नाजा (12 अनाज) के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में उत्तराखंड से मोटे अनाज की खेती करने से किसान बच रहे हैं। किसान पारंपरिक खेती छोड़ अब अन्य रोजगार के साधनों की ओर जा रहे हैं, जिसका सीधा असर मोटे अनाज (मंडुवा, चोलाई, दाल, कोणी, झंगोरा आदि) की खेती पर पड़ रहा है। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि 2011 में जो 2.02 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल मोटे अनाजों के लिए था, वह घटकर 2023 में 1.20 लाख हेक्टेयर मात्र ही रह गया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक मंडुवा, झंगोरा व चैलाई का क्षेत्रफल 73 हजार हेक्टेयर ही रह जायेगा।
मिलेट्स यानी मोटा अनाज की समृद्ध परंपरा सदियों से रही है। समय बीता और ग्लैमर के इस युग में बाजारीकरण ने अपनी जगह बनाई जिससे उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों में उगाए जाने वाला मोटा अनाज धीरे-धीरे विलुप्त होने लगा। उत्तराखंड के गांवों में अभी भी इन मोटे अनाजों की खेती होती है हालांकि मौसम परिवर्तन और उचित मूल्य न मिलने के कारण इसका उत्पादन काफी घट गया है।
अपने परंपरागत अनाजों की खेती को बढ़ावा देकर राज्य को समृद्ध बनाया जा सकता है। आजादी से पहले जब देश में पी.डी.एस व्यवस्था लागू नहीं थी, तब भी पर्वतीय क्षेत्र अपने खाद्यान्न की समस्या का समाधान स्वयं करता था, हम कृषि क्षेत्र में आत्म निर्भर थे। मोटे अनाजों की खेती को प्रोत्साहित कर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की पलायन और बंजर होती खेती तथा युवाओं के रोजगार जैसे कई सवालों का एक साथ समाधान किया जा सकता है।
उत्तराखंड में मोटे अनाज की खेती से किसानों को काफी फायदा हो सकता है, इसके जरिए उनकी आमदनी बढ़ सकती है। मोटे अनाज की खेती को लेकर किए जा रहे प्रयासों के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं। भारतीय प्रबंधन संस्थान काशीपुर की ओर से किए गए शोध में यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड में चार में से तीन मोटे अनाज की खेती करने वाले किसानों की आमदनी में 10-20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। राज्य में मोटे अनाज की मांग बढ़ने के बावजूद प्रदेश के अधिकांश किसान अपने खाने के लिए मोटे अनाज की खेती करते हैं ना कि बेचने के लिए।
मोटे अनाज सस्ते होने के साथ-साथ उच्च प्रोटीन, फाइबर, विटामिन तथा आयरन आदि की उपस्थिति के चलते पोषण हेतु बेहतर आहार होते हैं।मोटे अनाजों में कैल्शियम और मैग्नीशियम की प्रचुरता होती है। जैसे-रागी में सभी खाद्यान्नों की तुलना में कैल्शियम की मात्रा सबसे अधिक होती है। इसमें लोहे की उच्च मात्रा महिलाओं की प्रजनन आयु और शिशुओं में एनीमिया के उच्च प्रसार को रोकने में सक्षम है। मोटे अनाज कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने में सहायक है जैसे-मधुमेह और मोटापे की समस्या। क्योंकि वे ग्लूटेन मुक्त होते हैं और इनमें ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है। (खाद्य पदार्थों में कार्बोहाइड्रेट के एक सापेक्ष स्तर के अनुसार वे रक्त शर्करा के स्तर को प्रभावित करते हैं)।  मोटे अनाज एंटीऑक्सीडेंट का संपन्न स्रोत है।

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