उत्तराखंड में नहीं हो पाया पलायन की समस्या का निवारण

देहरादून। उत्तराखंड में पलायन की समस्या का निवारण नहीं हो पाया। पलायन निवारण आयोग द्वारा सरकार को पलायन रोकने की दिशा में जो सुझाव दिए गए उन पर कोई अमल नहीं हो पाया, जिस कारण स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। पलायन के कारण राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के गांव लगातार जनविहीन होते जा रहे हैं। पलायन राज्य की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है, इस समस्या से निपटने के लिए सरकार को जिस प्रकार से कारगर कदम उठाने चाहिए थे वे नहीं उठाए गए। पलायन निवारण आयोग ने पर्वतीय क्षेत्रों से हो रहे पलायन को रोकने के संबंध में कई महत्वपूर्ण सुझाव अपनी रिपोर्ट में दिए हैं। ग्रामीण विकास विभाग के सहयोग से आयोग ने पलायन की स्थिति को जानने के लिए दो सर्वे कराए हैं, एक सर्वे 2018 में किया गया था और दूसरा सर्वे 2022 में किया जा चुका है।
उत्तराखंड में पलायन की समस्या के अध्ययन व पलायन की समस्या के निवारण के लिए वर्ष 2017 में भाजपा की तत्कालीन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उत्तराखंड में पलायन आयोग का गठन किया था। आयोग की जरूरत इसलिए पड़ी थी क्योंकि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों से हो रहे पलायन के कारणों का पता लगाया जा सके। धामी सरकार ने पलायन आयोग के नाम में थोड़ा परिवर्तन कर पलायन निवारण आयोग किया। आयोग का नाम पलायन निवारण आयोग किया लेकिन जिन समस्याओं के कारण राज्य के पर्वतीय क्षेत्र से लोग पलायन कर रहे हैं उन समस्याओं का निवारण नहीं हो पाया है। आयोग राज्य सरकार को कई रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुका है। पलायन आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में 400 से अधिक ऐसे गांव हैं जहां 10 से भी कम नागरिक रहते हैं और 1734 गांव खाली हो चुके हैं। राज्य में सबसे ज्यादा पलायन से प्रभावित जिले पौड़ी और अल्मोड़ा है। आयोग ने सर्वे में यह भी पाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में लोग पलायन कर रहे हैं। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य से 1.18 लाख लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं, जबकि 3.86 लाख लोगों ने अस्थायी रूप से पलायन किया। आयोग ने पलायन के कारण, कहां से कहां पलायन समेत अन्य बिंदुओं पर भी रिपोर्ट दी। रिपोर्ट में पलायन की मुख्य वजह बुनियादी सुविधाओं का अभाव, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की समस्या होना बताया गया है। ऐसे में सरकार के विकास के दावों को यह रिपोर्ट मुंह चिढ़ाती नजर आ रही है।
यदि गांवों में ही विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार, स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध हो जाएं तो इससे ग्रामीण आर्थिकी तो संवरेगी ही, पलायन पर अंकुश लगने के साथ ही प्रवासी भी घर वापसी के लिए प्रेरित होंगे। इस सबके दृष्टिगत पलायन निवारण आयोग ने सरकार को सुझाव दिया है कि कम से कम अगले 10 वर्षों तक गांवों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से सटे मध्य हिमालयी राज्य उत्तराखंड के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 85 प्रतिशत भाग पर्वतीय है। राज्य के 10 पर्वतीय जिलों में लगभग 75 प्रतिशत और मैदानी क्षेत्रों में 60 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में है। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। यह आर्थिक असमानता के साथ ही घटती खेती, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दबाव और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों की प्रति व्यक्ति आय में कमी जैसी चुनौतियों को दर्शा रहा है। बात समझने की है कि यदि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने की दिशा में तेजी से कदम उठाए जाएंगे तो इससे पलायन पर अंकुश लगेगा। यदि गांव व उसके आसपास ही स्वरोजगार, रोजगार के अवसर मिल जाएं तो कोई अपनी जड़ों को क्यों छोड़ेगा।
रिवर्स पलायन की बात हर मंच पर होती है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं और स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराए बगैर यह संभव नहीं है। पहाड़ के ग्रामीण तो ऐसा ही मानते हैं कि जब तक उन्हें घर पर रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा सुविधाएं नहीं मिलेंगी तब तक उन्हें वहां रोक पाना चुनौती ही है। रही बात रिवर्स पलायन की तो इस पर सिर्फ बातें ही हुईं हैं, काम कम ही हुआ है। रिवर्स पलायन की जो उम्मीद जगी थी वह फिर धूमिल पड़ गई। पलायन की सबसे अधिक मार पर्वतीय जिलों के दूरदराज के गांवों पर पड़ी। क्योंकि छोटी सी बीमारी के इलाज के लिए उन्हें शहरों की दौड़ लगानी पड़ रही है। शिक्षा के लिए भी उन्हें शहरों का ही रुख करना पड़ रहा है। रोजगार तो ऐसी समस्या है कि उसके लिए घर छोड़ना जैसा पहाड़ के युवाओं की नियति बन गई है। जो लोग खेतीबाड़ी कर आजीविका कमा रहे हैं, जंगली जानवर फसल नष्ट कर उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दे रहे हैं। ऐसे में उनके पास गांव घर को छोड़ शहरों में बस जाना एकमात्र विकल्प है।

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