कभी चाय उत्पादन का सिरमौर था देहरादून, अब जो चाय बागान हैं भी वे गिन रहे अंतिम सांसें

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देहरादून। एक समय था जब देहरादून की पहचान इसके चाय बागानों से हुआ करती थी। अंग्रेजों के जमाने में यहां बड़े पैमाने पर चाय का उत्पादन किया जाता था, जिससे हजारों लोगों का रोजगार जुड़ा था। दून की चाय विदेशों में भी सप्लाई की जाती थी, लेकिन जैसे-जैसे शहर में कंक्रीट के जंगल फैलने लगे, चाय बागान सिमटते गए। अब यहां के कई चाय बागान रिहायशी कॉलोनी में तब्दील हो चुके हैं और जो चाय बागान बचे भी हैं वे अंतिम सांसें गिन रहे हैं। दून के सबसे बड़े चाय बागान आरकेडिया ग्रांट में चाय के पौधे कम और जंगली घास-फूस ज्यादा नजर आती है। कुछ इसी तरह का हाल उदियाबाग, गुडरिच व अन्य चाय बागानों का भी है।
वर्ष 1830 में देहरादून में पहला चाय बागान स्थापित हुआ था। देहरादून की चाय की लोकप्रियता को देखते हुए प्रबंधन ने इसे मध्य एशिया के बाजारों में व्यावसायीकरण करने का निर्णय लिया, जो तब चीनी चाय द्वारा शासित थे। अपने शुरुआती दौर में देहरादून में चाय की खेती बहुत धीमी गति से चल रही थी। 1847 तक 8 एकड़ जमीन पर चाय की खेती की जाती थी। 1853-54 से देहरादून चाय बागान के प्रयोगों में काफी निवेश किया गया। 1855 तक यहां 73 चाय बागान अस्तित्व में आ गए थे। साल 1830 तक उत्तराखंड आसाम, उड़ीसा और नागालैंड की तुलना में 300 गुना चाय का उत्पादन करने लगा था। दून का कौलागढ़ क्षेत्र पूरे भारत का पहला चाय उत्पादक क्षेत्र था। 1857 में डॉ. जेमसन ने जांच की कि देहरादून में 1,00,000 एकड़ जमीन चाय की खेती के लिए उपयुक्त है, जिसमें हर एकड़ पर 100 पाउंड चाय की खेती की जा सकती है। 1863-64 तक 1,700 एकड़ जमीन पर चाय की खेती की जाती थी, जिसमें चाय बागान थे, 1872 में यह संख्या बढ़कर 2000 एकड़ हो गई और 2,07,828 पाउंड चाय का उत्पादन हुआ। चाय की खेती में इस वृद्धि ने देहरादून चाय बागान पर छाए धुंधले बादलों को दूर कर दिया। 1867 में जब चाय बागान की संस्कृति पूरी तरह से स्थापित हो गई, तो इसे नाहन के राजा को 20,000 पाउंड में बेच दिया गया। 1878 में देहरादून चाय बागान ने बहुत अच्छा प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। देहरादून में कुछ चाय बागान 170 साल पुराने हैं और कई पीढ़ियों को आजीविका प्रदान कर रहे हैं। एक समय ऐसा भी था जब देहरादून के बाहरी इलाकों का लगभग एक-चौथाई हिस्सा इन चाय बागानों से घिरा हुआ था, लेकिन अब उनमें से ज्यादातर का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। आर्केडिया ग्रांट, ईस्ट होपटाउन, उदियाबाग, गुडरिच और हर्बटपुर जैसे चाय बागान अभी भी चालू हैं।
देहरादून अपनी 100 प्रतिशत जैविक हरी चाय के साथ-साथ अपनी मौलिकता और चीनी नस्ल के लिए जाना जाता था। जबकि पश्चिम बंगाल और असम के बागान अब उत्पादन बढ़ाने के लिए क्लोन चाय को प्राथमिकता देते हैं। दून ने अपनी स्वदेशी चाय के साथ कभी समझौता नहीं किया। इसे देश में हरी चाय के एकमात्र और सबसे बड़े केंद्र अमृतसर को आपूर्ति की जाती थी। वहां से इसे जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और अन्य क्षेत्रों के बाजारों के अलावा पाकिस्तान और अफगानिस्तान में निर्यात किया जाता था। जैसे-जैसे साल गुजरे, चाय के बागान भी सिमटने लगे। साल 1951 तक यहां सिर्फ 37 चाय बागान बचे थे। अब यहां हरबंसवाला में स्थित आरकेडिया ग्रांट ही सबसे बड़े चाय बागान के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसकी हालत भी बदतर हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि देहरादून में चाय उत्पादन के लिए अनुकूल माहौल और संसाधन नहीं हैं, लेकिन सरकारी उपेक्षा के चलते योजनाएं परवान नहीं चढ़ पा रहीं।

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